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देवता: अग्निः ऋषि: विश्वामित्रो गाथिनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣भि꣡ प्रया꣢꣯ꣳसि꣣ वा꣡ह꣢सा दा꣣श्वा꣡ꣳ अ꣢श्नोति꣣ म꣡र्त्यः꣢ । क्ष꣡यं꣢ पाव꣣क꣡शो꣢चिषः ॥१५५७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभि प्रयाꣳसि वाहसा दाश्वाꣳ अश्नोति मर्त्यः । क्षयं पावकशोचिषः ॥१५५७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भि꣢ । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । वा꣡ह꣢꣯सा । दा꣣श्वा꣢न् । अ꣣श्नोति । म꣡र्त्यः꣢꣯ । क्ष꣡य꣢꣯म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषः । पा꣣वक꣢ । शो꣣चिषः ॥१५५७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1557 | (कौथोम) 7 » 2 » 9 » 2 | (रानायाणीय) 15 » 3 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा की स्तुति से क्या प्राप्त होता है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(दाश्वान्) आत्मसमर्पण करनेवाला (मर्त्यः) मनुष्य (वाहसा) परमेश्वर के प्रति किये गए स्तोत्र से (प्रयांसि) आनन्द-रसों को (अभि अश्नोति) पा लेता है। साथ ही (पावक-शोचिषः) पवित्रकारी ज्योतिवाले उस परमेश्वर के (क्षयम्) मोक्षधाम को भी प्राप्त कर लेता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य को योग्य है कि तेजस्वी जगदीश्वर की स्तुति से स्वयं भी उसके गुणों को धारण करके अभ्युदय तथा निःश्रेयस प्राप्त करे ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मस्तुत्या किं प्राप्यत इत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(दाश्वान्) आत्मसमर्पकः (मर्त्यः) मनुष्यः (वाहसा) अग्निं परमेश्वरं प्रति कृतेन स्तोत्रेण। [वाहः अभिवहनस्तुतिम्। निरु० ४।१६।] (प्रयांसि) आनन्दरसान्। [प्रयः इति उदकनाम। निघं० १।१२।] (अभि अश्नोति) प्राप्नोति। किञ्च (पावकशोचिषः) पावकदीप्तेः तस्य परमेश्वरस्य (क्षयम्) निवासं मोक्षमिति यावत् अभ्यश्नोति लभते ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

दीप्तिमतो जगदीश्वरस्य स्तुत्या स्वयमपि तद्गुणधारणेन मनुष्योऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुमर्हति ॥२॥